20 March 2018

पत्थर भी पिघलते हैं...?


इस पत्थर पर 
बहुत आये बैठे
और चले गए
किसने सुबह 
मुड़कर देखा
किसने सोचा
पत्थर भी पिघल
सकता है
पत्थर बेशक पत्थर है
पर पिघलता है 
अंदर ही अंदर
दिखाई नहीं देता सबको
महसूस कर सकते हैं
वही जिसने इसे
बाहर से नहीं
अंतर से छुआ
इन्तजार कर रहा है
पत्थर भी
फिर से पत्थर होकर
पिघलने का
सदियां लगेंगी
पर जुड़ेगा एकदिन
और पिघलेगा
जब कल रात जैसे
कोई थोड़ी देर
आकर बैठेगा
आप जैसा 

01 July 2017

ब्लॉगर्स से फेसबुकिया बनने पर

ब्लॉगर्स से फेसबुकिया बनने पर कौन-कौन क्या-क्या बन गया। तांगे में या रेस के घोडे को एक ऐनक/Blinker पहनाई जाती है....ताकि वो केवल सामने ही देख सके। ऐसे ही सभी ने ब्लिंकर्स पहने हैं और केवल नाक की सीध में ही देखते हुये लिखे जा रहे हैं। 

ब्लॉग्स पर रिसर्च और मेहनत करके ब्लॉग पर एक पोस्ट डाली जाती थी........टिप्पणीयों में सार्थक बहसबाजी होती थी.....पोस्ट गंभीर मुद्दे पर होने पर विषयानुरुप कई सारे ब्लॉगर्स अपने अपने ब्लॉग पर लिखते थे। विचार को विस्तार मिलता था। सही-गलत को समझने का भरपूर मौका होता था।  

एक पाठक के तौर पर जिन ब्लॉगर्स को फेवरिट समझता रहा...उनमें से कईयों की फेसबुक पर पोस्ट्स देखकर उबकाई आती है और कईयों को पढने पर हंसी..........कईयों पर खीझ पैदा होती है और कईयों पर गुस्सा...............अधिकतर ब्लॉगर्स मित्र फेसबुकिया बनने के बाद एक ही ट्रैक पर चल निकले हैं। वो खुद अगर अपनी फेसबुक वाल का मुहायना करें तो समझ जायेंगे कि वो क्या लिख रहे हैं और उन्हें चिंतन करना चाहिये कि वो ऐसा क्यों लिख रहे हैं। 

जब से ब्लॉगर्स ने फेसबुक का रुख किया........सभी ब्लॉगर्स एक दूसरे के सामने तलवारें खींचे दिखाई देने लगे। ब्लॉग्स लिखने वाले सभी ब्लॉगर्स या चिट्ठाकार होते थे। लेकिन फेसबुक पर आने के बाद सभी फेसबुकिये नहीं बने। कोई मोदीभक्त तो कोई आपिया, कोई वामपंथी तो कोई गौभक्त........ गुटबाजी/मठबाजी तब भी थी.. ..लेकिन इतने मनभेद नहीं थे... जितना फेसबुक ने कर दिया।

लगभग 300 ब्लॉग्स को फॉलो करता था......प्रतिदिन 50-60 पोस्ट अपडेट होती थी। उस समय चाहते थे कि कोई ऐसा फोन या डिवाईस आ जाये जिससे हिन्दी ब्लॉग्स को पढना और कमेंट करना आसान हो जाये। लेकिन जबसे ऐसी डिवाईसेज हाथों में आई तबसे ब्लॉगर्स को फेसबुक और व्हाट्सएप ने निगल लिया। सभी को जुकरबर्ग हिप्नोटाईज कर दिया...... ज्यादा से ज्यादा फॉलोवर बनाओ, हजारों मित्र और एक फोटो या एक पंक्ति पर सैंकडों कमेंट्स पाओ.... सेलिब्रिटी जैसा फील करो।

फेसबुक यानि समय-खपाऊ, सिर-खपाऊ, ऊर्जा-खपाऊ और बुद्धि-खपाऊ ने ब्लॉग्स के गांव को मिस्र की सभ्यता जैसे लील लिया है। कुछ दिन पहले अंशुमाला जी  ने हर महिने की पहली तारिख को अपने इस भूले-बिसरे ब्लॉग गांव में इकट्ठे होने का न्यौता दिया।  इस उजडे चमन को फिर से बसाने की कोशिश में उनकी तरकीब कई ब्लॉगर्स को पसन्द आई। इसके बाद ताऊ रामपुरिया जी ने तो पहली जुलाई 2017 को अंतराष्ट्रीय ब्लॉगदिवस ही घोषित कर दिया है और इस बारे में कई बार फेसबुक पर ब्लॉगर्स का आह्वान किया। ताऊ का लिखना छूटा था तो मेरा ब्लॉग्स को पढना छूट गया था। अब ताऊ का आदेश मानकर हम तो आ गये हैं अपने पसन्दीदा ब्लॉग्स को पढने और टिपियाने.......... 
चलते-चलते अपनी बनाई एक पुरानी पैरोडी भी यहां पेस्ट कर ही देता हुं :-)

तर्ज - एयरटेल विज्ञापन का सांग.......हरेक फ्रेंड जरुरी होता है
अनशन के लिये जैसे अन्ना होता है वैसे हर एक ब्लॉगर जरुरी होता है
ऐसे हर एक ब्लॉगर जरुरी होता है
कोई सुबह पांच बजे पोस्ट सरकाये
कोई रात तीन बजे टीप टिपियाये
एक तेरे ब्लॉग को फॉलोइंग करे
और एक तेरी पोस्ट पे लाईक करे
कोई नेचर से भूतभंजक कोई घोस्ट होता है
पर हर एक ब्लॉगर जरुरी होता है
एक सारी पोस्ट पढे पर कभी-कभी टिप्पी करे
एक सभी पोस्ट पर सिर्फ नाईस कहे
धर्मप्रचार का कोई ब्लॉग, कोई भंडाफोडू
कोई कहे जो तुझसे सहमत ना हो उसका सिर तोडूं
कोई अदला-बदला की टिप्पणी कोई लिंक देता है
लेकिन हर इक ब्लॉगर जरुरी होता है
इस गुट का ब्लॉगर कोई उस मठ का ब्लॉगर
कोई फेसबुक पर चैट वाला क्यूट-क्यूट ब्लॉगर
साइंस ब्लॉगर कोई ज्योतिष ब्लॉगर
कोई दीक्षा देने वाला बा-बा ब्लॉगर
कविता सुनाने वाला कवि ब्लॉगर
उलझन सुलझाने वाला वकील ब्लॉगर
पहेली पूछने वाला ताऊ ब्लॉगर
आपस में लडवाने वाला हाऊ ब्लॉगर
देश में घुमाने वाला मुसाफिर ब्लॉगर
विदेश दिखाने वाला देशी ब्लॉगर
तकनीक सिखाने वाला ज्ञानी ब्लॉगर
सबको हंसाने वाला कार्टूनिस्ट ब्लॉगर
ये ब्लॉगर, वो ब्लॉगर, हास्य ब्लॉगर, संजीदा ब्लॉगर
हिन्दू ब्लॉगर, मुस्लिम ब्लॉगर, नया ब्लॉगर, पुराना ब्लॉगर
चोर-अनामी
महिला ब्लॉगर-पुरुष ब्लॉगर
क से ज्ञ
हर इक सोच में अन्तर होता है
पर हर एक ब्लॉगर जरुरी होता है
लेकिन हर एक ब्लॉगर जरूरी होता है

12 January 2017

देश का विकास यहीं से शुरू होता है........

BSF के जवान के घटिया खाना परोसे जाने का वीडियो आने के बाद मुझे पूरा यकीन था कि अब इस तरह के और वीडियो भी आयेंगे..........अब CRPF के एक कांस्टेबल ने समस्याओं की शिकायत की है। आगे और भी आयेंगे और आने भी चाहियें। लेकिन अब क्यों, इसका कारण है ....... जवानों के मन में, जनता के मन में, लोगों के मन में एक आशा..........एक भरोसा पैदा हुआ है कि नरेन्द्र मोदी शायद कुछ कर सकते हैं। वो नोटिस लेते हैं....... ये सब समस्यायें अब पैदा नहीं हुई।
जन-मन में ऐसा भरोसा होना आसान नहीं होता और बहुत मुश्किल है ऐसे भरोसे को बनाये रखना। नेहरू पर था......इन्दिरा पर हुआ.......अटल पर हुआ और उसके बाद सब बिखरता गया.....पहले दिन भरोसा करते..वोट पडते ही टूट जाता। केजरीवाल पर भरोसा किया था......खूब भरोसा किया। लेकिन कितने दिन....रहा।
नेता कुछ करे कुछ करके दिखाये तभी बनता है ऐसा भरोसा.......ऐसी ही एक उम्मीद मैं भी पाले बैठा हूं।

मैं भी सोच रहा हूं मोदी के लिये एक सेल्फ़ी वीडियो मैं भी डाल दूं......भई भरोसा तो हमें भी है कि नोटिस लेंगे। भारत विकासशील देश है....मतलब.....कुछ ना कुछ विकास तो होता ही रहा है......हो रहा है और होता रहेगा। लेकिन विकसित कब होंगे....और विकसित होने के लिये विकास की गति बढानी होगी और गति कैसे बढे......जिस देश में आज भी 50km जाने के लिये तीन घंटे लगते हैं। देश के किसी दूर-दराज के इलाके की बात नहीं कर रहा हूं....वहां तो पता नहीं क्या होता होगा.....राजधानी दिल्ली के आसपास और NCR का जिक्र है। इस देश का विकास सम्भव नहीं है जबतक सडकों और रेलवे का सुधार ना हो। सबसे बडी बात रेलों का सुधार चाहिए। 
ट्रेन समय पर चलें बस इतना सा सुधार हो जाये तो बहुत बडा फर्क आयेगा, कैसे? तो सुन लो........इस देश में लगभग ढाई करोड..... हां जी, दो करोड पचास लाख (2,50,000,00) लोग प्रतिदिन रेल में सफ़र करते हैं। इनमें लगभग एक करोड लोग दैनिक यात्री भी होते हैं......जो अपने व्यापार धंधे के लिये, नौकरी के लिये, रोजी-रोटी के लिये, मेहनत-मजदूरी के लिये ट्रेन में आते-जाते हैं। उनकी कितनी एनर्जी/ऊर्जा जिसका उपयोग उत्पादन/रचनात्मकता/संवृद्धि (Development/Growth/Produce/Creativity) में होना चाहिये, वो ट्रेन में या स्टेशन पर देरी से आने वाली ट्रेनों का इंतजार करते, झल्लाते निकल जाता है।


मुझे घर से केवल 50km दूर दिल्ली आने के लिये तीन घंटे लग जाते हैं......जबकि ट्रेन की समयदूरी रेलवे के अनुसार एक घंटा है। ट्रेन देरी से आती हैं.......या समय से आती हैं तो पहुंचते-पहुंचते देर कर देती हैं.......... सर्दी के मौसम में तो अवश्य.....छ: घंटे आने और जाने में लगते हैं, इसका मतलब है गणित की भाषा में जिन्दगी का एक चौथाई (1/4) हिस्सा ट्रेन में और ट्रेन के इंतजार में बर्बाद हो जाना।  ;-) :-) :D
सुबह-सुबह की एनर्जी में जो कार्य कोई भी दो घंटे में कर सकता है, वही कार्य करने में उसी आदमी को 5 से 6 घंटे लग जाते हैं। ढाई करोड लोग एक घंटा भी देर से अपने गंतव्य पर पहुंचते हैं तो देश की ढाई करोड घंटो की उत्पादकता/रचनात्मकता बाधित होती है.....समझे कि नहीं? 

तेईस साल से दैनिक रेलयात्री होने के नाते एक अनुभव ये है कि लालू जब रेलमंत्री बने थे तो साफ़-सफ़ाई और रेलों की नियमितता में सुधार देखा था। सर्दियों की धुंध और कोहरे भरी सुबहें भी ज्यादतर रेल समय से या बहुत कम देरी किये आती-जाती थी। मत चलाओ नई ट्रेन, मत दो और ज्यादा सुविधायें........जो चल रही हैं उन्हें ही ठीक रख लो..........सबसे पहले ट्रेनों के आवागमन को समयानुसार निश्चित कर दो। देश का विकास यहीं से शुरू होता है........ 
रेल मंत्रालय इस बार कुछ ऐसा करो कि ट्रेन समय पर चलें और समय पर पहुंचे। मालगाडियों का जिक्र नहीं किया है .......नुकसान तो उनकी देरी से भी है।

26 February 2016

अपने मौहल्ले का चौकीदार भी मैं

कुछ समय पहले फेसबुक पर एक तुकबंदी लिखी थी, उसमें सुनीता यादव जी ने कमेंट किया -  "अपने मौहल्ले का चौकीदार भी मैं"
मजाक-मजाक में लिखी उनकी ये पंक्ति सत्य हो गई।

रेलवे रोड पर घर होने की वजह से रेलवे स्टेशन के आसपास की जगह और रेलवे स्टेशन का मालगोदाम खेलने का मैदान रहा और प्लेटफार्म मॉर्निंग-इवनिंग वॉक की जगह...........रात में मेहमान रुकते थे तो उन्हें नींद बडी मुश्किल से आती थी-ट्रेनों की आवाजाही और हॉर्न की वजह से और हमारे लिये रेल की सीटी आज भी लोरी का काम करती है।
15-02-2016 को दिल्ली से वापिस घर जाने के लिये ट्रेन नहीं थी तो ऑफिस में ही रात गुजारी। 16-02-2016 को घर गया तो उसके बाद ऑफिस आना 23-02-2016 को ही हो पाया। 24-02-2016 को सुबह ट्रेन का हॉर्न सुनकर चेहरा खिल गया। लेकिन सांपला से दिल्ली के लिये ट्रेन तो आज 26-02-2016 तक भी नहीं चल रही है।
17-18-19 फरवरी तो कोई खास नहीं, लेकिन 20-21-22 के दिन खौफ में और रातें हाथ में लट्ठ लेकर पहरा देते हुये गुजारी हैं।

12 December 2015

चेहरे पे चेहरा लगाये रहता हूं मैं

चेहरे पे चेहरा लगाये रहता हूं मैं
खुद से खुद को छुपाये रहता हूं मैं
नजरें मिलाई तो मुजरिम ठहराओगे
इसलिये आंखें झुकाये रहता हूं मैं

सब कहते हैं अब भुला दूं तुमको
पर खुद को ही भुलाये रहता हूं मैं
अलविदा कहके चले तो गये तुम
फिर भी आस लगाये रहता हूं मैं

वक्त की हवाओं से डूब गये सूरज भी
तेरी यादों का दिया जलाये रहता हूं मैं
चेहरे पे चेहरा लगाये रहता हूं मैं
खुद से खुद को छुपाये रहता हूं मैं