12 March 2010

क्यों संस्कृति की दुहाई बार-बार दी जाती है?

जो नदी बहती रहती है, उसका जल स्वच्छ, ताजा और निर्मल रहता है। मगर जो ठहर जाती है वो पोखर या जोहड बनकर समाप्त हो जाती है। सही और गलत की परिभाषायें समय, स्थान और स्थिति के साथ परिवर्तित हो जाती हैं। कोई बात, विचार, प्रथा, नियम आदि भी किसी के लिये सही और किसी के लिये गलत हो सकते हैं। कल जो सही था जरूरी नहीं कि वह आज भी सही लगे या आज जो सही है हो सकता है कि कल वही गलत रहा हो। आज आप जिसे पसन्द करते हैं, जरूरी नही कि कल भी वह आपको अच्छा लगेगा। किसी समय बाल-विवाह सही था और विधवा-विवाह गलत कार्य की श्रेणी में आता था, मगर आज…………………

संस्कृति में  इसी तरह कुछ बदलाव आते ही हैं, बल्कि परिवर्तन विकास का ही नाम है। फिर क्यों संस्कृति की दुहाई हर जगह दी जाती है। जब हम दूसरों के सम्पर्क में आते हैं तो रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल  और पहनावे में (क्षणिक) परिवर्तन तो स्वत: हो ही जाता है।
जहां किसी चीज के खरीददार हैं तो उसके बेचने वाले तो अपने आप पैदा हो ही जाते हैं।  कोई लेखक  कहता है कि मैं रीडरशिप बेचता हूं। लेखक आज आत्मतुष्टि के लिये नही बल्कि पाठकों के लिये लिखता है। सिनेमा जो लोग देखना चाहते हैं वही तो दिखायेगा। जब नंगेपन को देखने वाले हैं तो दिखाने वाले तो दिखायेंगें ही। लेकिन  अगर सब नंगे हो गये तो ना कोई देखने वाला बचेगा ना दिखाने वाला। अच्छा है कि कुछ लोग रहें और दिखाते रहें उन्हें, जिन्हें देखना है वो देखते रहें। क्या पहले नाचने वालियां, कोठे वालियां, तवायफें, वेश्यायें नही होती थी? क्या पहले चोर, डाकू, लुटेरे, अपहरणकर्ता, बलात्कारी नही होते थे? क्या अब अच्छे लोग नहीं हैं, क्या पतिव्रता स्त्रियां, मां-बाप की सेवा करने वाले बच्चे, परस्त्री को माता-बहन समझने वाले पुरुष, कर्त्तव्यों को निभाने वाले लोग खत्म हो गये हैं?
हम जो करना चाहते हैं उसके लिये हजार कारण इकट्ठे कर लेते हैं और जो नही करना चाहते उसके लिये सैंकडों बहाने हमारा मस्तिष्क खोज लेता है। सही और गलत की व्याख्या भी हम इसी आधार पर कर लेते हैं।

21 comments:

  1. हम जो करना चाहते हैं उसके लिये हजार कारण इकट्ठे कर लेते हैं और जो नही करना चाहते उसके लिये सैंकडों बहाने हमारा मस्तिष्क खोज लेता है।

    बहुत सही कहा आपने.

    रामराम.

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  2. निरंतर परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यदि गति और परिवर्तन न रहे तो समय भी नहीं रहेगा।

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  3. विचारणीय पोस्ट है मगर उस बदलाव मे समाज के हित को ध्यान मे रख कर बदलाव हों तो वो बदलाव ही सही माना जायेगा। जो केवल आधुनिकता के या अपने ही स्वार्थ के लिये बदलाव हो वो बदलाव नही कहा जासकता। संस्कृति के मूल भाव को नष्ट नही होना चाहिये जैसे नदी अगर अपने किनारों मे बहती है तभी लाभ देती है किनारे तोड कर बहने से बस बर्बादी ही मचाती है इसे तरह प्रकृति का हर कार्य है। बात संस्कृत्रि के मूल भाव को समझने की है बस उसका उपरी आवरण जो हमने खुद उसे पहनाया है समय समय पर अपने स्वार्थ के लिये उसे ही उतारने की जरूरत है। इस बात को कोई कैसे झुठला सकता है। विचारणीय आलेख । शुभकामनायें
    शुभकामनायें

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  4. बहुत ही सही कहा आपने कि "हम जो करना चाहते हैं उसके लिये हजार कारण इकट्ठे कर लेते हैं और जो नही करना चाहते उसके लिये सैंकडों बहाने हमारा मस्तिष्क खोज लेता है।"

    संसार में हर चीज साक्षेप है इसलिये किसी भी चीज की कोई एक परिभाषा हो ही नहीं सकती, सही और गलत की भी। जो बात किसी के लिये सही होती है वही किसी अन्य के लिये गलत। समय काल और परिस्थिति के अनुसार भी सही और गलत की परिभाषा बदल जाती है।

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  5. संस्‍कृति का अर्थ होता है हमारी आध्‍यात्मिक एवं मानसिक उन्‍नति जो हमारी सभ्‍यता को चिर स्‍थाई रख सके। भारत में इसलिए हम हमेशा नए सिद्धान्‍त देते रहे हैं और ह‍म सभी में संस्‍कारों के माध्‍यम से इसी भाव को पोषित करने का प्रयास करते हैं कि हम इस चराचर जगत के संरक्षण की चिंता करें। हम परिवारवादी व्‍यवस्‍था के अनुयायी है और हमारा मार्ग भोग का नहीं होकर त्‍याग का है। हमारे परिधान आदि हमारी संस्‍कृति को दर्शाते हैं ना कि वे हमारी संस्‍कृति हैं। हम शालीन दिखे, दूसरों के लिए घातक सिद्ध न हो बस यही हमारा उद्देश्‍य रहता है। इस सृष्टि में प्रकृति भी है और संस्‍कृति भी साथ ही विकृति भी। ये तीनों की हर युग में रही हैं। लेकिन भारतीय चिंतन में हम व्‍यष्टि से समष्टि की ओर त्‍याग की भावना के साथ जाते हैं। लेकिन आज व्‍यक्तिवाद हावी हो रहा है इस कारण जो हम करते हैं उसे जायज ठहराने का प्रयास किया जाता है। लेकिन जायज वही है जो सब के हित में है।

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  6. सहमत।
    घुघूती बासूती

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  7. हमारी संस्‍कृति विश्व मै एक अलग पहचान रखती है, जिसे लोग आज भी इज्जत की नजर से देखते है,क्योकि जब यहां किसी को पता चलता है कि हम भारतीया है ओर हिन्दू तो वो खुद वा खुद हमे अलग से देखता है, ओर बहुत कुछ जानने को करता है,आगे मै निर्मला जी ओर डां अजीत गुप्ता जी की टिपण्णियों से सहमत हुं

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  8. लेकिन अगर सब नंगे हो गये तो ना कोई देखने वाला बचेगा ना दिखाने वाला।

    सच बात है । सच्चाई भी सापेक्षिक है ।

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  9. nice post .
    sir, wud u like to see
    http://www.vedquran.blogspot.com/

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  10. मौसम और भौगोलिक स्थिति की वजह से संस्कृत और भाषा जरुर अलग -अलग रही हें, मगर मतलब एक ही रहा है । मजहब नहीं सिखाता आपस मैं बैर रखना।

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  11. मौसम और भौगोलिक स्थिति की वजह से संस्कृत और भाषा जरुर अलग -अलग रही हें, मगर मतलब एक ही रहा है । मजहब नहीं सिखाता आपस मैं बैर रखना।

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  12. परिवर्तन श्रष्टि का नियम है न रोकने का प्रयत्न होना चाहिए और न कोई रोक पायेगा हाँ अपने पूर्वजों के सर्वकालिक अनुभव को साथ लेते चलें उससे फ़ायदा अवश्य होगा !

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  13. भारतीय संस्कृति पर हमला हो रहा है , यह हमला बहुस्तरीय है-यह देह के स्तर पर तो है ही, मन के स्तर पर भी है बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा अनेक टी.वी. चैनलों के जरिए जो हमला किया जा रहा है, वह बेहद चतुराई और निर्लज्जता से भरा है, जिससे लड़ने का जो हमारा तंत्र है, इसके आगे स्वतः नतमस्तक हो गया है। प्लासी का युद्ध हम हारे नहीं थे, हमारे सेनापति विदेशियों से मिल गए और बिना लड़े ही हम गुलाम हो गए थे। यही खतरा आज भी हमारे सामने है। उस बार राज्य दे दिया गया था, लेकिन इस बार राज्य के साथ संस्कृति भी दाँव पर लगी हुई है।
    भारतीय संस्कृति वस्तुतः आज गहरे संकट में है और यही संकट आज तक के इतिहास का सबसे बड़ा संकट है। इससे पहले भारतीय संस्कृति इस तरह सार्वदेशिक हमलों का शिकार कभी नहीं हुई। हमलावार आते रहे और भाग जाते रहे या फिर यहीं पर रच-पच जाते रहे, पर इस बार वे यहाँ आये नहीं है। इस बार हमारी संस्कृति पर वे हमारे अपनों से ही हमला करवा रहे हैं और हम अर्जुन की तरह विषाद में घिर गए हैं कि इन्हें कैसे मारें। हमारे सामने तो हमारे अपने ही खड़े हैं ऐसे ही कठिन समय के लिए शायद भारतीय मनीषा ने ‘श्रीमद्भगवत् गीता’ जैसे ग्रंथ की रचना की है, जिसके जरिये अर्जुन को धर्म का पालन और संस्कृति की रक्षा करने के लिए सन्नद्ध किया जा सकता है।

    अभी भी समय है , हर मूल्यों पर भारतीय संस्कृति को बचाना ही होगा । सारे विश्व में अपनी संस्कृति के कारण ही भारत की अलग पहचान है । यह एक सतत प्रवाहमान , नूतनता की सुगंध फैलाती , ऐसी जीवंत धारा है , जिसकी अपनी एक अलग पहचान है । भारत और उसकी संस्कृति दोनों में ही अटूट संबंध है , इसे तोड़कर ना तो देश का हित होगा और ना ही समाज का । संस्कृति को बचाना संस्कृति प्रेमीयों का धर्म होना चाहिए । न केवल राष्ट्रिय गौरव की पुनर्स्थापना की दृष्टि से यह आवश्यक है, बल्कि पूरा विश्व भी आशा भरी नजरों से शांती एवं कल्याण के लिए इसको निहार रहा है ।

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  14. सहमत हूं आपसे सौ प्रतिशत्।

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  15. कम से कम शहरों की हालत तो ये है कि सोचने तक का समय नहीं है बदलाव या सुधार की बात तो दूर. इसके चलते आज यहां एक नहीं ही संस्कृति या कहूं कि अपसंस्कृति उत्पन्न हो रही है जिसके चलते पहले से प्रतिस्थापित धारणाएं टूट व बदल रही हैं.

    नए के विरूद्ध नहीं हूं मैं किन्तु सब नया सुसंस्कृत ही हो यह भी तो ज़रूरी नहीं है न. यही मेरा विचार है.

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  16. "यहां एक नहीं ही संस्कृति... " = "यहां एक नई ही संस्कृति... "

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  17. @आदरणीय अनवर जमाल जी सलाम-आलेकुम
    मैं पिछले दो दिन से आपके ब्लाग से जुडा हूं। 3-4 पोस्टें पढी हैं। काफी गूढ विषयों पर लिखते हैं आप। अभी मेरी इतनी बुद्धि नही है कि मैं इन बातों को समझ सकूं, और सहमति-असहमति जता सकूं, इसलिये कमेंट नही करता हूं। आप अपनी बात लिखते रहिये। मैं पढता रहूंगा और जिन्हें पढना है वो तो पढेंगें ही। मेरी पोस्ट पर टिप्पणी के लिये शुक्रिया नही दूंगा जी, क्योंकि आपने केवल अपने लिंक का प्रचार करने के लिये ही टिप्पणी की है।

    प्रणाम स्वीकार करें

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  18. आप सब का आभार
    आशा है आप सबका आशिर्वाद इसी तरह बना रहेगा

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  19. @पूज्यनीया निर्मला कपिला जी
    आपकी बात से सहमत कि संस्कृति के मूल भाव को नष्ट नही होने देना चाहिये

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  20. पूज्यनीया अजीत गुप्ता जी
    आपका आभार संस्कृति का अर्थ बताने के लिये
    आपकी बात बहुत अच्छी और सच्ची लगी
    और इसी त्याग की भावना ने जहां भारतीयों को आत्मिक सुख दिया है, वहीं भौतिक तौर पर भी इस का खामियाजा भुगतना पडा है।

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  21. @ आदरणिय मिथिलेश जी
    आपकी बातों को समझने के लिये मेरी बुद्धि नाकाफी है। और मेरी यही छोटी बुद्धि कभी-कभी तर्क के लिये उकसाती है। इसलिये क्षमा चाहूंगा।
    जरूरी नहीं कि जो सदा से चला आ रहा है या हमारे पूर्वजों द्वारा किया जा रहा है, वह सारा का सारा सही हो। उसमें भी खामियां हो सकती हैं।
    इसके अलावा भी हम कितने कार्य अपने वेद-पुराणों के अनुसार करते हैं???
    "आत्मा अजर-अमर है" इसका प्रचार केवल हिन्दू धर्म में ही किया गया है और आज हम ही मौत से सर्वाधिक भय खाने वाली कौम हैं। कयों??
    आपकी बात सही है कि आज हर हिन्दू के सामने अर्जुन जैसी चित्तदशा, मनोदशा और ऊहापोह है, मगर हम अब भी किसी कृष्ण के अवतरित होने और दुष्टों का सफाया करने का इंतजार करते हैं क्यों?
    गीता में जितना कुछ अर्जुन के लिये कहा गया है, उसे हम अपनी सुविधानुसार तोड-मरोड कर अपने लिये लागू कर लेते हैं।

    प्रणाम

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मुझे खुशी होगी कि आप भी उपरोक्त विषय पर अपने विचार रखें या मुझे मेरी कमियां, खामियां, गलतियां बतायें। अपने ब्लॉग या पोस्ट के प्रचार के लिये और टिप्पणी के बदले टिप्पणी की भावना रखकर, टिप्पणी करने के बजाय टिप्पणी ना करें तो आभार होगा।